Thursday, 22 September 2022

देव --रीतिकालीन कवि PART ----1

                     देव --रीतिकालीन कवि 
 
जीवन परिचय
 जन्म 1673
 निधन 1768
 जन्म स्थान -कुसमरा, इटावा, उत्तर प्रदेश

 कुछ प्रमुख कृतियाँ
भाव-विलास, भवानी-विलास, कुशल-विलास, रस-विलास, प्रेम-चंद्रिका, सुजान-मणि, सुजान-विनोद, सुख-सागर


देव की अन्य कृतियां ⬇️.  PART ----1


आँगन बैठी सुन्यो पिय आवन चित झरोखन मे लख्यो परै ।
देवजू घूँघट के पट हू मे समात न फूल्यो हियो फरक्यो परै ।
नैनन आनँद के अँसुवा मनो भौँर सरोजन ते भरक्यो परै ।
दँत लसै मृदु मँद हँसी सुख सोँ मुख दाड़िम सो दरक्यो परै ।






आई बरसाने ते बुलाय वृषभानु सुता ,
निरखि प्रभान प्रभा भानु की अथै गई ।
चक चकवान के चकाये चक चोटन सोँ,
चौँकत चकोर चकचौँधा सी चकै गई ।
देव नन्दनन्दन के नैनन अनन्दमयी ,
नन्दजू के मँदिरन चँदमयी छै गई ।
कँजन कलिनमयी कुँजन नलिनमयी ,
गोकुल की गलिन अलिनमयी कै गई ।



आवन सुन्यो है मनभावन को भावती ने
 
आँखिन अनँद आँसू ढरकि ढरकि उठैं ।
देव दृग दोऊ दौरि जात द्वार देहरी लौँ
 
केहरी सी साँसे खरी खरकि-खरकि उठैँ ।
टहलैँ करति टहलैँ न हाथ पाँय रँग
 
महलै निहारि तनी तरकि तरकि उठैं ।
सरकि सरकि सारी दरकि दरकि आँगी
 
औचक उचौहैँ कुच फरकि फरकि उठैँ ।




 
इन्दिरा के मन्दिर से सुंदर बदन वे ,
मदन मूँदै बिहँसै रदन छवि छानि छानि ।
ऊरून मे ऊरू उर उरनि उरोज भीजे ,
गातनि गात अँगिरात भुज भानि भानि ।
दूरि ही ते दौरि दुरि दुरि पौर ही ते मुरि ,
मुरि जाती देव दासी अति रुचि मानि मानि ।
पीत मुख भये पीया पीतम जामिनि जगे ,
लपटत जात प्रात पीत पट तानि तानि ।




 
कुँजन के कोरे मनु केलिरस बोरे लाल ,
तालनि के खोरे बाल आवति है नित को ।
अमृत निचोरे कल बोलति निहोरे नेकु ,
सखिनु के डोरे देव डोलै जित तित को ।
थोरे थोरे जोबन बिथोरे देत रूपरासि .
गोरे मुख मोरे हँसि जोरे लेत हित को ।
तोरे लेति रति दुति मोरे लेत मति गति ,
छोरे लेति लोकलाज चोरे लेत चित को ।






कोऊ कहौ कुलटा कुलनि अकुलानि कहौ ,
कोऊ कहौ रँकिनि कलँकिनि कुनारी हौँ ।
तैसो नरलोक बरलोक परलोकनि मैँ ,
कीन्ही हौँ अलीक लोक लीकनि ते न्यारी हौँ ।
तन जाउ मन जाउ देव गुरुजन जाउ ,
प्रान किन जाउ टेकु टरत न टारी हौँ ।
बृंदावनवारी बनवारी के मुकुटवारी ,
पीत पटवारी वहि मूरति पै वारी हौँ ।






खरी दुपहरी भरी हरी हरी कुंज मँजु
 
देव अलि पुंजन के गुंज हियो हरिजात ।
सीरे नदनीरन गँभीरन समीर छांह
 
सोवै परे पथिक पुकारैं पिक करि जात ।
ऎसे मे किसोरी भोरी गोरी कुम्हिलाने मुख
 
पंकज मे पांय धरा धीरज मे धरि जात ।
सोहैं घनस्याम मग हेरति हथेरी ओट
 
ऊचे धाम बाम चढ़ि आवत उतरि जात ।






गोरी गरबीली उठी ऊँघत चकात गात ,
देव कवि नीलपट लपटी कपट सी ।
भानु की किरन उदैसान कँदरा ते कढ़ी,
शोभा छवि कीन्ही तम तोम पै दपट सी ।
सोने की शलाका श्याम पेटी ते लपेटी कढ़ि,
पन्ना ते निकारी पुखराज के झपट सी ।
नील घन तड़ित सुभाय धूम धुँधरित ,
धायकर धँसी दावा पावक लपट सी





ग्रीषम प्रचंड घाम चंडकर मंडल तें,
घुमड्यौ है ’देव’ भूमि मंडल अखंड धार ।
भौन तें निकुंज भौन, लहलही डारन ह्वै,
दुलही सिधारी उलही ज्यों लहलही डार ॥
नूतन महल, नूत पल्लवन छवै छवै से,
दलवनि सुखावत पवन उपवन सार ।
तनक-तनक मनि-नूपुरु कनक पाई,
आइ गई झनक-झनक झनकारवार ॥





घाँघरो घनेरो लाँबी लटैँ लटे लाँक पर ,
काँकरेजी सारी खुली अधखुली टाड़ वह ।
गारी गजगोनी दिन दूनी दुति हूनी देव ,
लागत सलोनी गुरु लोगन के लाड़ वह ।
चँचल चितौन चित चुभी चितचोर वारी ,
मोरवारी बेसरि सुकेसरि की आड़ वह ।
गोरे गोरे गोलनि की हँसि हँसि बोलन की ,
कोमल कपोलनि की जी मैँ गड़ि गाड़ वह ।



जगमगे जोबन जराऊ तरिवन कान ,
ओँठन अनूठे रस हाँसी उमड़े परत ।
कँचुकी मे कसे आवैँ उकसे उरोज ,
बिँदु बँदन लिलार बड़े बार घुमड़े परत ।
गोरे मुख सेत सारी कँचन किनारीदार ,
देव मनि झुमका झुमकि झुमड़े परत ।
बड़े बड़े नैन कजरारे बड़े मोती नथ ,
बड़ी बरुनीन होड़ा होड़ी हुमड़े परत ।






जबतें कुबर कान्ह रावरी कलानिधान कान परी वाके कहूँ सुजस कहानी सी।
तबहीं तें देव देखौ देवता सी हँसति सी खीझति सी रीझत सी रूसति रिसानी सी।
छोही सी छलि सी छीड़ लीनी सी छकी सी छीन जकी सी टकी सी लगी थकी थहरानी सी।
बीधी सी बँधी सी विष बूड़ी सी विमोहति सी बैठी वह बकति बिलोकति बिकानी सी॥






जोबन के रँग भरी ईँगुर से अँगनि पै ,
ऎँड़िन लौँ आँगी छाजै छबिन की भीर की ।
उचके उचौ हैँ कुच झपे झलकत झीनी ,
झिलमिल ओढ़नी किनारीदार चीर की ।
गुलगुले गोरे गोल कोमल कपोल ,
सुधाबिन्दु बोल इन्दुमुखी नासिका ज्योँ कीर की ।
देव दुति लहराति छूटे छहरात केस ,
बोरी जैसे केसरि किसोरी कसमीर की ।





झहरि झहरि झीनी बूँद है परति मानों,
घहरि घहरि घटा घेरी है गगन में।
आनि कह्यो स्याम मो सौं 'चलौ झूलिबे को आज'
फूली न समानी भई ऎसी हौं मगन मैं॥
चाहत उठयोई उठि गई सो निगोड़ी नींद,
सोय गये भाग मेरे जानि वा जगन में।
आँख खोलि देखौं तौं न घन हैं, न घनश्याम,
वेई छाई बूँदैं मेरे आँसु ह्वै दृगन में॥






झहरि झहरि झीनी बूँद है परति मानों,
घहरि घहरि घटा घेरी है गगन में।
आनि कह्यो स्याम मो सौं 'चलौ झूलिबे को आज'
फूली न समानी भई ऎसी हौं मगन मैं॥
चाहत उठयोई उठि गई सो निगोड़ी नींद,
सोय गये भाग मेरे जानि वा जगन में।
आँख खोलि देखौं तौं न घन हैं, न घनश्याम,
वेई छाई बूँदैं मेरे आँसु ह्वै दृगन में॥




डारि द्रुम-पालन बिछौना नव-पल्लव के
सुमन झिगूला सोहै तन छवि भारि दै
पवन झुलावै केकी-कीर बहरावे देव
कोयल हलावे-हुलसावे कर तारि दै
पूरित पराग सौं उतारौं करै राई-नोन
कंजकली नायिका लतानि सिर-सारि दै
मदन-महीपजू को बालक बसंत ताहि
प्रातहि जगावत गुलाब चटकारि दै




साहिब अंध, मुसाहिब मूक, सभा बहिरी, रंग रीझ को माच्यो।
भूल्यो तहाँ भटक्यो घट औघट बूडिबे को काहू कर्म न बाच्यो।
भेष न सूझयो, कह्यो समझयो न, बतायो सुन्यो न, कहा रुचि राच्यो।
'देव' तहाँ निबरे नट की बिगरी मति को सगरी निसि नाच्यो॥



दूलह को देखत हिए मैं हूलफूल है
बनावति दुकूल फूल फूलनि बसति है।
सुनत अनूप रूप नूतन निहारि तनु,
अतनु तुला में तनु तोलति सचति है
लाज भय मूल न, उघारि भुजमूलन,
अकेली है नवेली बाल केली में हँसति है।
पहिरति हरति उतारति धरति देव,
दोऊ कर कंचुकी उकासति कसति है।




देव जियै जब पूछौ तौ प्रेम को पार कहूँ लहि आवत नाहीँ ।
सो सब झूठ मतै मन के बकि मौन सोऊ सहि आवत नाहीँ ।
ह्वै नँद नँद तरँगनि को मन फेन भयो गहि आवत नाहीँ ।
चाहे कह्यो बहुतेरो कछूपै कहा कहिए कहि आवत नाहीँ ।





देव मैं सीस बसायो सनेह सों, भाल मृगम्मद-बिन्दु कै भाख्यौ।
कंचुकि में चुपरयो करि चोवा, लगाय लियो उरसों अभिलाख्यौ॥

लै मखतूल गुहे गहने, रस मूरतिवंत सिंगार कै चाख्यौ।
साँवरे लाल को साँवरो रूप मैं, नैननि को कजरा करि राख्यौ॥

जबते कुँवर कान्ह, रावरी कलानिधान,
कान परी वाके कँ सुजस कहानी सी।
तब ही तें 'देव देखी, देवता सी, हँसति सी,
रीझति सी, खीजति सी, रूठति रिसानी सी॥

छोही सी, छली सी, छीन लीनी सी, छकी सी, छीन
जकी सी, टकी सी लगी, थकी, थहरानी सी।
बींधी सी, बँधी सी, बिष बूडति, बिमोहित सी
बैठी बाल बकति, बिलोकति, बिकानी सी॥

धारा में धारा धँसीं निरधार ह्वै, जाय फँसीं उकसीं न ऍंधेरी।
री अगराय गिरीं गहिरी गहि, फेरे फिरीं न घिरीं नहिं घेरी॥

'देव कछू अपनो बस ना, रस लालच लाल चितै भइँ चेरी।
बेगि ही बूडि गई पँखियाँ, ऍंखियाँ मधु की मखियाँ भइँ मेरी॥

भेष भये विष, भावै न भूषन, भूख न भोजन की कछु ईछी।
'देवजू देखे करै बधु सो, मधु, दूधु सुधा दधि माखन छीछी॥

चंदन तौ चितयो नहिं जात, चुभी चित माँहिं चितौनी तिरीछी।
फूल ज्यों सूल, सिला सम सेज, बिछौननि बीच बिछी जनु बीछी





धार मैँ धाय धँसी निरधार ह्वै जाय फँसी उकसी न अँधेरी ।
री अँगराय गिरी गहिरी गहि फेरे फिरीँ न घिरीँ नही घेरी ।
देव कछू अपनो बसु ना रस लालच लाल चितै भईँ चेरी ।
बेगि ही बूड़ि गई पँखियाँ अँखियाँ मधु की मखियाँ भई मेरी ।


पाँयनि नूपुर मंजू बजै,कटि किंकिनि कै धुनि की मधुराई.
सांवरे अंग लसै पट पीत,हिय हुलसै बनमाल सुहाई .
माथे किरीट बड़े दृग चंचल,मंद हँसी मुख चन्द जुन्हाई.
जै जग-मंदिर-दीपक सुंदर,श्रीबजदूलह 'देव'सहाई .




पीत रँग सारी गोरे अँग मिलि गई देव ,
श्रीफल उरोज आभा आभासै अधिक सी ।
छूटी अलकनि छलकनि जल बूँदनि की ,
बिना बेँदी बँदन बदन सोभा बिकसी ।
तजि तजि कुँज पुँज ऊपर मधुप गुँज ,
गुँजरत मधुप रव बोलै बाल पिक सी ।
नीबी उकसाइ नेकु नयन हँसाइ हँसि ,
ससिमुखी सकुचि सरोबर तैँ निकसी ।





प्यारे तरु नीजन विपिन तरुनी जन ह्वै
 
निकसी निसंक निसि आतुर अतंक मैँ ।
गनै न कलँक मृदु लँकनि मयँकमुखी
 
पँकज पगन धाई भागि निसि पँक मैँ ।
भूषननि भूलि पैन्हे उलटे दुकूल देव
 
खुले भुजमूल प्रतिकूल बिधि बँक मैँ ।
चूल्हे चढे छाँड़े उफनात दूध भाँड़े उन
 
सुत छाँड़े अँक पति छाँड़े परजँक मैँ ।









प्रेम चरचा है अरचा है कुल नेमन रचा है
 
चित और अरचा है चित चारी को ।
छोड़्यो परलोक नरलोक बरलोक कहा
 
हरष न सोक ना अलोक नर नारी को ।
घाम सीत मेह न बिचारै देह हूँ को देव
 
प्रीति ना सनेह डरु बन ना अँध्यारी को ।
भूलेहू न भोग बड़ी बिपति बियोग बिथा
 
जोगहू ते कठिन सँजोग परनारी को ।

 



प्रेम समुद्र परयो गहिरे अभिमान के फेन रह्यो गहि रे मन ।
कोप तरँगन ते बहि रे अकुलाय पुकारत क्योँ बहिरे मन ।
देवजू लाज जहाज ते कूद भरयो मुख बूँद अजौँ रहि रे मन ।
जोरत तोरत प्रीति तुही अब तेरी अनीति तुही सहि रे मन ।





फटिक सिलानि सौं सुधारयौं सुधा मंदिर,
उदधि दधि को सो अधिकाई उमगे अमंद।
बाहर ते भीतर लौं भीति न दिखैए देव,
दूध को सो फेन फैल्यौ आँगन फरसबंद।
तारा सी तरुनि तामे ठाढी झिलमिल होति,
मोतिन की जोति मिल्यो मल्लिका को मकरंद।
आरसी से अंबर में आभा सी उजारी लगै,
प्यारी राधिका को प्रतिबिम्ब सो लागत चंद॥ 





बरुनी बघँबर मैँ गूदरी पलक दोऊ ,
कोए राते बसन भगोहेँ भेष रखियाँ ।

बूड़ी जल ही मैँ दिन जामिनि हूँ जागैँ भौंहैँ ।
धूम सिर छायो बिरहानल बिलखियाँ ।

अँसुआँ फटिक माल लाल डोरे सेल्ही पैन्हि ,
भई हैँ अकेली तजि चेली सँग सखियाँ ।

दीजिये दरस देव कीजिये सँजोगिनि ये ,
जोगिनि ह्वै बैठी हैँ बियोगिनि की अँखियाँ





बारिध बिरह बड़ी बारिधि की बड़वागि
 
बूड़े बड़े बड़े जहां पारे प्रेम पुलते ।
गरुओ दरप देव जोबन गरब गिरि पयो
 
गुन टूटि छूटि बुधि नाउ डुलते ।
मेरे मन तेरी भूल मरी हौँ हिये की सूल
 
कीन्ही तिन तूल तूल अति ही अतुलते ।
भांवते ते भोँड़ी करी मानिनि ते मोड़ी करी
 
कौड़ी करी हीरा ते कनौड़ी करी कुलते ।







बोयो बस बिरद मैँ बोरी भई बरजत ,
मेरे बार बार बीर कोई पास बैठो जनि ।
सिगरी सयानी तुम बिगरी अकेली हौँ ही ,
गोहन मैँ छाँड़ो मोसोँ भौँहन अमेठो जनि ।
कुलटा कलँकिनी हौँ कायर कुमति कूर ,
काहू के न काम की निकाम यातें ऎँठो जनि ।
देव तहाँ बैठियत जहाँ बुद्धि बढै हौँ तो ,
बैठी हौँ बिकल कोई मोहि मिलि बैठो जनि




भेष भये विष भावै न भूषन भूख न भोजन की कछु ईछी ।
देवजू देखे करै बधु सो मधु दूध सुधा दधि माखन छीछी ।
चँदन तौ चितयो नहिँ जात चुभी चित माँहि चितौनि तिरीछी ।
फूल ज्योँ सूल सिला सम सेज बिछौननि बीच बिछी मनौ बीछी ।





मँजुल मँजरी पँजरी सी ह्वै मनोज के ओज सम्हारत चीरन ।
भूँख न प्यास न नीँद परै परी प्रेम अजीरन के जुर जीरन ।
देव घरी पल जाति घुरी अँसुवान के नीर उसास समीरन ।
आहन जाति अहीर अहे तुम्है कान्ह कहा कहौँ काहू की पीरन ।




मँद महा मोहक मधुर सुर सुनियत
 
धुनियत सीस बँधी बाँसी है री बाँसी है ।
गोकुल की कुलबधू को कुल सम्हरै नही
 
दो कुल निठारै लाज नासी है री नासी है ।
कहि धौँ सिखावत सिखै धौँ काहि सुधि होय
 
सुधि बुधि कारे कान्ह डाँसी है री डांसी है ।
देव बृजवासी वा बिसासी की चितौनि वह
 
गाँसी है री हांसी वह फाँसी है री फाँसी है ।




मँद हास चँद्रिका को मँदिर बदन चँद ,
सुन्दर मधुर बानि सुधा सरसाति है ।
इन्दिरा ऎन नैन इन्दीवर फूलि रहे ,
विद्रुम अधर दन्त मोतिन की पाँति है ।
ऎसी अदभुत रूप भावती को देख्यो देव ,
जाके बिनु देखे छिनु छाती ना सिराति है ।
रसिक कन्हाई बलि बूझनि हौँ आई तुम्हैँ ,
ऎसी प्यारी पाइ कैसे न्यारी राखी जाति है ।



 

माखन सो मन दूध सो जोबन है दधि ते अधिकै उर ईठी ।
जा छवि आगे छपा करु छाछ समेत सुधा बसुधा सब सीठी ।
नैननु नेह चुवै कवि देव बुझावत बैन बियोगि अँगीठी ।
ऎसी रसीली अहीरी अहो कहौ क्योँ न लगै मन मोहनै मीठी ।






माथे महावर पाँय को देखि महावर पाय सुढार ढुरीये ।
ओँठन पै ठन वै अँखियाँ पिय के हिय पैठन पीक धुरीये ।
सँग ही सँग बसौ उनके अँग अँगन देव तिहोर लुरीये ।
साथ मे राखिये नाथ उन्हेँ हम हाथ मे चाहतीँ चार चुरीये ।





मुरली सुनत बाम काम-जुर लीन भई
 
धाई धुर लीक सुनि बिधीँ बिधुरनि सौँ ।
पावस न दीसी यह पावस नदी सी फिरै
 
उमड़ी असँगत तरँगित उरनि सौँ ।
लाज काज सुख साज बँधन समाज नांघि
 
निकसीँ निसँक सकुचैँ नहिँ गुरनि सौँ ।
मीन ज्यों अधीनी गुन कीनी खैँच लीनी देव
 
बंसी वार बंसी डार बँसी के सुरनि सौँ ।





मूरति जो मनमोहन की मनमोहनी के थिर ह्वै थिरकी सी ।
देव गुपाल को बोल सुनै सियराति सुधा छतियाँ हिरकी सी ।
नीके झरोखा ह्वै झाँकि सकै नहिँ नैनन लाल घटा घिरकी सी ।
पूरन प्रीति हिये हिरकी खिरकी खिरकीन फिरै फिरकी सी ।




रूपे के महल धूपे अगर उदार द्वार ,
झाँझरी झरोखा मूँदे चारु चिकराती मैँ ।
ऊध अधमूल तूल पटनि लपेटे मूल ,
पटल सुगन्ध सेज सुखद सोहाती मैँ ।
सिसिर के शीत प्रिया पीतम सनेह दिन ,
छिन सो बिहात देव राति नियराती मैँ ।
केसरि कुरँग सार अँग मे लिपत दोऊ ,
दोऊ मे दिपत और छिपत जात छाती मैँ ।



लागत समीर लँक लहकै समूल अँग ,
फूल से दुकूलनि सुगँध बिथुरयो परै ।
इन्दु सो बदन मँद हास सुधा बिँदु ,
अरबिँदु ज्योँ मुदित मकरँदनि मुरयो परै ।
ललित ललार श्रम झलक अलक भार ,
मग मे धरत पगु जावक घुरयो परै ।
देव मनि नूपुर पदुम पद दूपुर ह्वै ,
भू पर अनूप रँग रूप निचुरयो परै ।





लाज के निगड़ गड़दार अड़दार चँहु,
चौँकि चितवन चरखीन चमकारे हैँ ।
बरुनी अरुन लीक पलक झलक फूल ,
झूमत सघन घन घूमत घुमारे हैँ ।
रँजित रजोगुन सिँगार पुंञ कुँजरत ,
अंञन सोहन मनमोहन दतारे हैँ ।
देव दुख मोचन सकोच न सकत चलि ,
लोचन अचल ये मतँग मतवारे हैँ ।




लाल बिना बिरहाकुल बाल बियोग की ज्वाल भई झुरि झूरी ।
पानी सोँ पौन सोँ प्रेम कहानी सोँ पान ज्योँ प्रानन पोषित हूरी ।
देवजु आज मिलाप की औधि सो बीतत देखि बिसेखि बिसूरी ।
हाथ उठायो उड़ाइबे को उड़ि काग गरे परी चारिक चूरी ।





वा चकई को भयो चित चीतो चितौत चँहु दिसि चाय सों नाँची ।
ह्वै गई छीन छपाकर की छवि जामिनि जोन्ह मनौ जम जाँची ।
बोलत बैरी बिहंगम देव संजोगिनि की भई संपति काँची ।
लोहू पियो जु वियोगिनी को सु कियो मुख लाल पिसाचिनि प्राची। 





पायनि नूपुर मंजु बजे, कटि किंकिनि की धुनि की मधुराई।
साँवरे अंग लसे पट पीत, हिये हुलसै बनमाल सुहाई।
माथे किरीट बड़े दृग चंचल, मंद हँसी मुख चंद जुन्हाई।
जै जग मन्दिर दीपक सुन्दर, श्री ब्रज दूलह देव सहाई॥








सखी के संकोच,गुरु सोच मृगलोचनि,
            परसानी पिय सों जो उन नेकु हँसि छुयो गात .
देव वै सुभाय मुसकाय उठि गए,यहाँ
            सिसकि सिसकि निसि खोई, रोय पायो प्रात.
को जानै, री बीर! बिनु बिरही बिरह विथा,
            हाय हाय करि पछताए न कछु सुहात.
बड़े बड़े नैनन सों आँसू भरि भरि ढरि,
            गोरो गोरो मुख आज ओरो सो बिलानो जात.






सहर सहर सोँधो सीतल समीर डोलै ,
घहर घहर घन घेरि कै घहरिया ।
झहर झहर झुकि झीनी झरि लायो देव ,
छहर छहर छोटी बूँदनि छहरिया ।
हहर हहर हँसि कै हिँडोरे चढ़ी ,
थहर थहर तनु कोमल थहरिया ।
फहर फहर होत पीतम का पीत पट ,
लहर लहर होत प्यारी को लहरिया ।








साँवरी सुघर नारी महा सुकुमारी सोहै ,
मोहै मनमोहन को मदन तरँगनी ।
अनगने गुननि के गरब गहीर मति ,
निपुन सगीँत गीत सरस प्रसँगनी ।
परम प्रवीन बीन मधुर बजावै गावै ,
नेह उपजावै यो रिझावै पति सगँनी ।
चातुर सुभाय बँक भौँहनि दिखाइ देव ,
विँगनि अलिँगन बनावति तिलँगनी ।










देव मैं सीस बसायो सनेह के भाल मृगम्मद बिन्दु के भाख्यो।
कंचुकी में चुपरयो करि चोवा लगाय लयो उर सो अभिलाख्यो।
लै मख्तूल गुहै गहने रस मूरतिवन्त सिंगार कै चाख्यो।
साँवरे स्याम को साँवरो रूप में नैननि में कजरा करि राख्यो॥








सीतल महल महा, सीतल पटीर पंक,
सीतल कै लीपि भीत, छीत-छात दहरें ।
सीतल सलिल भरे, सीतल विमल कुंड,
सीतल अमल जल-तंत्र-धारा छहरें ॥
सीतल बिछौनन पै, सीतल बिछाई सेज,
सीतल दुकॊल पैन्हि पौढ़े हैं दुपहरें ।
देव दोऊ सीतल अलिंगनन लेत-देत,
सीतल सुगंध मंद मारुत की लहरें ॥






सुधाकर से मुख बानि सुधा मुसकानि सुधा दरसै रदपाँति ।
प्रवाल से पानि मृनाल भुजा कहि देव लता तन कोमल कान्ति ।
नदी त्रिवली कदली युग जानु सरोज से नैन रहे रस माँति ।
छिनौ भरि ऎसी तिया बिछुरे छतिया सियराय कहौ केहि भाँति ।





सुनो कै परम पद, ऊनो के अनंत मद,
          नूनौ कै नदीस नद,इदिरा झुरै परी.
महिमा मुनीसन की,सम्पति दिगिसन की,
          ईसन की सिद्धि ब्रजविथी बिथुरै परी.
भादो की अँधेरी अधिराति मथुरा के पथ,
          पाय के संयोग'देव' देवकी दुरै परी.
पारावार पूरन अपार परब्रह्म रसि,
          जसुदा के कोरै एक बारही कुरै परी .




साँसनि ही सौं समीर गयो अरु, आँसुन सी सब नीर गयो ढरि।
तेज गयो गुन लै अपनो, अरु भूमि गई तन की तनुता करि॥
'देव' जियै मिलिबेहि की आस कि, आसहू पास अकास रह्यो भरि।
जा दिन तै मुख फेरि हरै हँसि हेरि हियो जु लियो हरि जू हरि॥






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